यज्ञ करते समय स्वाहा ही क्यों बोलते हैं?

यज्ञ करते समय स्वाहा ही क्यों बोलते हैं? : प्रिय मित्रों यह प्रश्न आपके मन में कई बार आया होगा और कुछ लोगों को पत्ता भी होगा फिर भी में आपको बता देता हूँ की जब भी कोई घर में प्रतिस्ठान में हवन या यज्ञ किया जाता हे तो पंडित स्वाहा स्वाहा लगा रहता हे। वास्तव में यज्ञ का कर्म करने से अपने उदेस्य और अपनी बात देवताओ तक पहुंचाई जाती हे और स्वाहा ऋग्वेद का प्रचलित शब्द हे हवन करने वाले को यह सुनिश्चित करना होता हे की किस प्रकार से और रीती से अपनी बात देवताओ तक पहुचाये इसलिए स्वाहा शब्द की उत्पति हुयी। स्वाहा का शाब्दिक अर्थ होता है – ” समर्पित करना “ अर्थात हम हाविष्य को देवो को समर्पित कर रहे है ।

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कई बार आपने – ” इदम न मम “ शब्द का भी जिक्र सुना होगा इसका अर्थ यह हे की “यह मेरा नहीं है” इस तरह देवो को यह बताया जाता हे की आप मेरी द्वारा दिए गए हवन की हवि को ग्रहण कीजिये में आपको पूर्ण समपर्ण के साथ यह प्रदान करता हु।

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एक बार क्या हुवा की प्रजापति दक्ष ने अपनी कन्या का बिवाह स्वाहा का अग्निदेव के साथ किया था और अग्निदेव स्वाहा के ही माध्यम से हविश्य को ग्रहण करते है । इसीलिए स्वाहा कहकर हविष्य को उन्हें निवेदित भी किया जाता है ।

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यज्ञ करते समय स्वाहा ही क्यों बोलते हैं?

“स्वाहा” एक पौराणिक संक्षेप है जो विभिन्न धार्मिक और पौराणिक प्रथाओं में प्रयोग होता है। यह संस्कृत शब्द है और यज्ञों में उपयोग होता है, जिसमें आहुति देते समय एक मंत्र के रूप में बोला जाता है। “स्वाहा” शब्द को आमतौर पर आहुति के बाद बोला जाता है।

“स्वाहा” का अर्थ होता है “मैं इसे स्वीकार करता हूँ” या “मैं इसे अर्पण करता हूँ”। इसे आहुति को देने की प्रक्रिया में उच्चारित किया जाता है जिससे मान्यता होती है कि आहुति देने वाला व्यक्ति अपनी सेवा और समर्पण को ईश्वर के लिए उपहार के रूप में दे रहा है। इससे संकेत मिलता है कि यज्ञ की आहुतियाँ पूर्णता और समर्पण के अभिप्रेत रूप में ईश्वर के पास पहुंचाई जा रही हैं।

“स्वाहा” के अतिरिक्त अन्य आचार्यों और धार्मिक ग्रंथों में भी इसके विभिन्न व्याख्यान और व्याख्यान हो सकते हैं। इसलिए, इसका उपयोग विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में भिन्न-भिन्न मायनों में किया जाता है।

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