उत्तराखंड राज्य आंदोलन का इतिहास देश के सबसे बड़े और सबसे खूनी आंदोलनों में से एक है। 1 सितम्बर 1994 का दिन उत्तराखंड के इतिहास में काले अक्षरों में दर्ज है, जब खटीमा में पुलिस की गोलीबारी में निहत्थे आंदोलनकारियों को मौत के घाट उतार दिया गया। यह घटना उत्तराखंड राज्य आंदोलन का एक महत्वपूर्ण और दर्दनाक मोड़ साबित हुई, जिसने पूरे पहाड़ी क्षेत्र में आक्रोश की लहर पैदा कर दी।
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| उत्तराखंड का इतिहास |
उत्तराखंड राज्य आंदोलन की पृष्ठभूमि
उत्तराखंड को पृथक राज्य बनाने की मांग कोई नई नहीं थी। इस मांग की पहली आवाज़ 1897 में उठी थी, और फिर 5-6 मई 1938 को श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विशेष सत्र में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस मांग का समर्थन किया था। लेकिन 1994 में यह आंदोलन एक जनआंदोलन का रूप ले चुका था।
मंडल आयोग और आंदोलन की शुरुआत
मार्च 1994 में, तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का निर्णय लिया, जिसमें सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 27% आरक्षण का प्रावधान था। पहाड़ी क्षेत्रों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की आबादी केवल 2.5% थी, इसलिए इस आरक्षण का मतलब था कि सभी सरकारी पद मैदानी क्षेत्रों के लोगों को मिल जाएंगे।
इस फैसले ने पहाड़ी क्षेत्र के छात्रों और युवाओं में तीव्र विरोध की लहर पैदा की। उत्तराखंड क्रांति दल (UKD) के नेताओं ने अलग राज्य की मांग के लिए भूख हड़ताल शुरू की। राज्य सरकार के कर्मचारी तीन महीने तक हड़ताल पर रहे और उत्तराखंड आंदोलन तेज हो गया।
1 सितम्बर 1994: खटीमा गोलीकांड
1 सितम्बर 1994 को ऊधम सिंह नगर जिले के खटीमा में एक भयानक घटना घटी जो उत्तराखंड के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गई। हजारों की संख्या में स्थानीय लोग, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे, पृथक उत्तराखंड राज्य की मांग के लिए रामलीला मैदान में इकट्ठा हुए थे।
खटीमा में क्या हुआ
खटीमा में करीब 10,000 लोगों का जुलूस पृथक राज्य की मांग करता हुआ सितारगंज रोड की ओर बढ़ा और फिर लौटकर कोतवाली के गेट से निकल रहा था। अचानक पुलिस ने बिना किसी चेतावनी के प्रदर्शनकारियों पर गोलियां बरसाना शुरू कर दिया। पुलिस ने करीब 60 राउंड गोलियां चलाईं। इस नृशंस गोलीकांड में 7 आंदोलनकारी शहीद हो गए और 165 से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हुए। शहीदों के नाम हैं:
- भगवान सिंह सिरौला - गांव श्रीपुर बिचुवा, खटीमा
- प्रताप सिंह
- सलीम अहमद
- गोपीचंद - गांव रतनपुर
- धर्मानंद भट्ट
- परमजीत सिंह
- रामपाल
पुलिस की साजिश
खटीमा गोलीकांड पूर्व नियोजित था। पुलिस ने आंदोलनकारियों को रोकने के लिए साजिश रची थी। आरोप लगाया गया कि पुलिस ने झूठा दावा किया कि प्रदर्शनकारियों ने पहले गोली चलाई थी। अपने अपराधों को छिपाने के लिए, अधिकारियों ने रात भर में शवों को नदी में फेंक दिया। आधिकारिक रिपोर्ट में 7 मौतें बताई गईं, लेकिन अनौपचारिक खातों से पता चलता है कि वास्तविक संख्या काफी अधिक थी।
2 सितम्बर 1994: मसूरी गोलीकांड
खटीमा गोलीकांड की खबर पूरे कुमाऊं और गढ़वाल में आग की तरह फैल गई। अगले ही दिन 2 सितम्बर 1994 को मसूरी में लोग विरोध प्रदर्शन के लिए इकट्ठा हुए।
मसूरी में क्या हुआ
2 सितम्बर 1994 की सुबह मसूरी में लोग खटीमा गोलीकांड के विरोध में शांतिपूर्ण जुलूस निकाल रहे थे। अचानक गनहिल से प्रदर्शनकारियों पर बड़े पत्थर फेंके जाने लगे। लोगों की राय थी कि यह मुलायम सिंह यादव के निर्देश पर किया गया था। इससे पुलिस बलों और लोगों के बीच तनाव बढ़ गया। मसूरी के तत्कालीन CO (सर्कल ऑफिसर) झूलाघर में हेलमेट पहने खड़े थे। आंदोलनकारियों के अनुसार, CO ने चिल्लाया, "कौन पत्थर फेंक रहा है, पहले पत्थर बंद करो," लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था। पत्थरबाजी से घायल हुए आंदोलनकारियों पर अचानक PAC (प्रांतीय सशस्त्र बल) ने गोलियां बरसा दीं, जिसमें 6 लोग शहीद हो गए। तत्कालीन DSP उमाकांत त्रिपाठी ने पुलिसकर्मियों और PAC को चिल्लाकर कहा "फायर बंद करो," लेकिन उनके सिर पर हत्यारा गुस्सा था और गर्मी के क्षण में उन्होंने गोलीबारी जारी रखी। DSP उमाकांत भी गोली लगने से गंभीर रूप से घायल हो गए और बाद में अस्पताल में उनकी मौत हो गई।
मसूरी गोलीकांड के शहीद
मसूरी गोलीकांड में छह आंदोलनकारी शहीद हुए:
- बलवीर सिंह नेगी (22 वर्ष) - लक्ष्मी मिष्ठान, लाइब्रेरी, मसूरी
- बेलमती चौहान (48 वर्ष) - पत्नी श्री धर्म सिंह चौहान, ग्राम-खालों, पट्टी घाट, अकोदया, टिहरी
- हंसा धनाई (45 वर्ष) - पत्नी श्री भगवान सिंह धनाई, गांव-बांगधार, पट्टी धर्मंडल, टिहरी
- धनपत सिंह (50 वर्ष) - गांव-गंगवाड़ा, पट्टी-गंगवाड़सू, गढ़वाल
- राय सिंह बंगारी (54 वर्ष) - गांव तोडेरा, पट्टी-पूर्व भरादर, टिहरी
- मदन मोहन ममगाईं (45 वर्ष) - नजाली, कुलड़ी, मसूरी
2 अक्टूबर 1994: मुजफ्फरनगर रामपुर तिराहा कांड
खटीमा और मसूरी गोलीकांड के बाद, उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति ने 2 अक्टूबर 1994 को गांधी जयंती के अवसर पर दिल्ली में राजघाट पर धरना देने का निर्णय लिया। हजारों आंदोलनकारी ऋषिकेश से बसों में दिल्ली के लिए निकले।
रामपुर तिराहा में नरसंहार
जब आंदोलनकारी रात में मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा (चौराहा) पहुंचे, तो पुलिस ने उन्हें रोक दिया। 1 अक्टूबर की रात को पुलिस ने बिना किसी चेतावनी के निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसा दीं। इस भयानक घटना में 6 आंदोलनकारी शहीद हो गए और कई महिलाओं के साथ बलात्कार और छेड़छाड़ की गई। CBI की जांच के अनुसार, 24 महिलाओं के साथ यौन शोषण किया गया, जिनमें से 7 के साथ बलात्कार हुआ और 17 के साथ छेड़छाड़ की गई।
रामपुर तिराहा के शहीद
रामपुर तिराहा कांड में शहीद हुए आंदोलनकारियों के नाम हैं:
- रवींद्र रावत चौहान
- सतेंद्र सिंह
- गिरीश कुमार भद्री
- अशोक कुमार केशव
- राजेश लखेरा
- सूर्यप्रकाश थपलियाल
मुलायम सिंह यादव की भूमिका
रामपुर तिराहा कांड के समय मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। CBI की जांच से पता चला कि यह घटना पूर्व नियोजित थी और पुलिस ने आंदोलनकारियों को रोकने के लिए साजिश रची थी। मुलायम सिंह यादव ने बाद में कथित तौर पर कहा, "मैं क्या करूं, मेरे पास गोलियां ही थीं"। इस बयान ने उत्तराखंड में आक्रोश को और बढ़ा दिया। रामपुर तिराहा की घटना को उत्तराखंड आंदोलन का "सबसे क्रूर घटना" और "जलियांवाला बाग नरसंहार से भी अधिक भयावह" बताया गया।
उत्तराखंड आंदोलन में महिलाओं की भूमिका
उत्तराखंड राज्य आंदोलन में महिलाओं की भूमिका असाधारण थी। आंदोलन में 60 से 70 प्रतिशत हिस्सा महिलाओं का था। 31 अगस्त 1994 को लगभग 100,000 महिलाओं ने राज्य आंदोलन में भाग लिया। महिलाओं ने आंदोलन के दौरान अनगिनत कठिनाइयों का सामना किया। कई महिलाओं ने पृथक राज्य की मांग के लिए भूख हड़ताल की। खटीमा, मसूरी और मुजफ्फरनगर में हुई घटनाओं में महिलाओं को गोलियों का शिकार बनाया गया, बलात्कार किया गया और अपमानित किया गया।
उत्तराखंड राज्य का गठन
खटीमा, मसूरी और रामपुर तिराहा की घटनाओं ने उत्तराखंड आंदोलन को एक नया मोड़ दिया। इन नरसंहारों ने पूरे देश का ध्यान इस मुद्दे पर केंद्रित कर दिया। 15 अगस्त 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा ने लाल किले से उत्तराखंड राज्य के गठन की घोषणा की। हालांकि राजनीतिक अस्थिरता के कारण यह प्रक्रिया लंबी खिंच गई। अंततः 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड (शुरुआत में उत्तरांचल) भारत का 27वां राज्य बना। राज्य के पहले राज्यपाल सुरजीत सिंह बरनाला और पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी बने।
CBI जांच और न्याय की लड़ाई
इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश पर 12 जनवरी 1995 को CBI ने इन घटनाओं की जांच शुरू की। CBI ने 72 गवाहों की जांच की और 28 पुलिस कर्मियों के खिलाफ मामला दर्ज किया। 30 साल बाद, मार्च 2024 में पहली बार रामपुर तिराहा मामले में दो पूर्व PAC कांस्टेबलों मिलाप सिंह और वीरेंद्र प्रताप को बलात्कार और लूटपाट के आरोप में दोषी ठहराया गया। उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और प्रत्येक पर 1 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया। हालांकि, मुख्य आरोपी पूर्व मुजफ्फरनगर DM अनंत कुमार सिंह राज्यपाल की अनुमति की प्रतीक्षा के कारण अभियोजन से बच गए।
आंदोलनकारियों के लिए सरकार की योजनाएं
- उत्तराखंड सरकार ने राज्य आंदोलनकारियों और शहीदों के परिवारों के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं:
- राज्य आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों के लिए सरकारी नौकरियों में 10% क्षैतिज आरक्षण
- शहीद आंदोलनकारियों के परिवारों के लिए 3,000 रुपये प्रति माह पेंशन
- घायल और जेल में रहे आंदोलनकारियों के लिए 6,000 रुपये प्रति माह
- सक्रिय आंदोलनकारियों के लिए 4,500 रुपये प्रति माह पेंशन
- आंदोलनकारियों को सरकारी बसों में मुफ्त यात्रा
- 93 आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरी में नियुक्ति
शहीद स्थल और स्मारक
आज खटीमा, मसूरी और मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा में शहीद स्मारक बनाए गए हैं। हर साल 1 सितम्बर, 2 सितम्बर और 2 अक्टूबर को मुख्यमंत्री और अन्य गणमान्य व्यक्ति इन स्मारकों पर शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं। उत्तराखंड सरकार ने रामपुर तिराहा शहीद स्थल को विकसित करने के लिए एक मास्टर प्लान तैयार करने की घोषणा की है। इस योजना में संग्रहालय को अधिक प्रमुखता देना, एक कैंटीन बनाना और उत्तराखंड की बसों के लिए एक स्टॉपेज बनाना शामिल है।
1 सितम्बर 1994 से शुरू होकर पूरे सितंबर-अक्टूबर 1994 की घटनाओं ने उत्तराखंड के इतिहास में एक गहरा निशान छोड़ा। खटीमा, मसूरी और मुजफ्फरनगर में हुए नरसंहारों में 42 से अधिक आंदोलनकारी शहीद हुए और सैकड़ों घायल हुए। महिलाओं के साथ हुए अत्याचार उत्तराखंड के इतिहास के सबसे काले अध्याय हैं, लेकिन इन शहीदों के बलिदान ने पृथक उत्तराखंड राज्य की नींव रखी। आज जब हम उत्तराखंड के खूबसूरत पहाड़ों और घाटियों में घूमते हैं, तो हमें उन शहीदों को याद रखना चाहिए जिन्होंने इस राज्य के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। हर बार जब आप कहें "मैं उत्तराखंड से हूं," तो उन नायकों को सम्मान दें जिन्होंने हमारी पहचान और भविष्य के लिए संघर्ष किया। उनके बलिदान हमारे सम्मान के पात्र हैं।
जय उत्तराखंड! वीर शहीदों को शत-शत नमन!
