लद्दाख, भारत का एक सीमांत क्षेत्र, 2019 में जम्मू-कश्मीर से अलग होकर केन्द्र शासित प्रदेश बना। इसे अपनी अलग पहचान, स्वशासन व सांस्कृतिक संरक्षण की अपेक्षा थी, लेकिन केंद्र सरकार की सीधी प्रशासनिक व्यवस्था ने स्थानीय लोगों में असंतोष पैदा किया। पिछले छह वर्षों से लद्दाख की जनता, खासकर शहर लेह और करगिल के लोग, लगातार संवैधानिक सुरक्षा, "छठी अनुसूची" में शामिल करने, और राज्य का दर्जा बहाल करने की मांग कर रहे हैं।
आंदोलन की ताजा शुरुआत
सितम्बर 2025 में यह आंदोलन उस समय तीव्र हो गया जब लद्दाख एपेक्स बॉडी (LAB) और करगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (KDA) के बैनर तले बड़े स्तर पर शांतिपूर्ण बंद और अनशन हो रहे थे। प्रमुख पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक 15 दिनों से प्रदर्शनकारियों के साथ भूख हड़ताल पर थे। जैसे-जैसे सरकार से संवाद की उम्मीदें टूटीं, जनाक्रोश बढ़ने लगा।
हिंसा में तब्दील
24-25 सितम्बर को लेह में शांतिपूर्ण बंद अचानक उग्र हो गया। हजारों की भीड़ में युवाओं ने बीजेपी दफ्तर और पुलिस वाहनों को आग के हवाले कर दिया। पुलिस और सीआरपीएफ ने भीड़ पर लाठीचार्ज और आंसू गैस के गोले छोड़े। दोनों तरफ से पथराव हुआ, जिससे 4 लोगों की मौत हुई और 70 से अधिक (40 सुरक्षाकर्मी सहित) घायल हो गए। हालात काबू में आने के बाद कर्फ्यू, धारा 144 तथा इंटरनेट सेवाओं पर रोक लगा दी गई।
मुख्य मांगें
प्रदर्शनकारी चार प्रमुख मांगे बुलंद कर रहे हैं:
- लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा
- छठी अनुसूची (Sixth Schedule) में शामिल करना (जिससे राज्य को स्थानीय प्रशासन, भूमि एवं संसाधन पर अधिकार मिले)
- लेह और करगिल के लिए अलग-अलग लोकसभा सीटें
- रोजगार में आरक्षण और संरक्षण
इनका मूल उद्देश है — लद्दाख की भौगोलिक, सांस्कृतिक और जनसंख्या की अनूठी पहचान बचाना। अधिकांश आबादी (90% से ज्यादा) अनुसूचित जनजाति में आती है, इसलिए लोग चाहते हैं कि पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह स्थानीय स्वशासन और संसाधनों की रक्षा हो सके।
कारक और विस्फोटक स्थिति
प्रदर्शन अचानक हिंसा में बदलने के पीछे कई कारण है:
केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा लगातार वार्ता टालना
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संवैधानिक सुरक्षा के वादों का पूरा न होना
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युवाओं का निराशा और सत्ता से संवादहीनता होना
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सोनम वांगचुक जैसे नेताओं की भूख हड़ताल से आग्रह की राजनीति का दबाव
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सीमांत क्षेत्र का पर्यटन एवं रोज़गार पर COVID-19 के बाद संकट
राज्य और केंद्र सरकार, दोनों पर आरोप लगे कि वे स्थानीय मांगों की अनदेखी कर रहे हैं। वहीं प्रशासन ने कहा कि प्रदर्शनकारियों के अचानक हिंसक हो जाने से पुलिस को "आत्मरक्षा" करनी पड़ी।
सामाजिक-राजनीतिक असर और प्रतिक्रियाएं
इस त्रासदी ने लद्दाख में समाज के सभी वर्गों — बौद्ध, मुसलमान, युवाओं, महिलाओं — को एकजुट कर दिया। लेह और करगिल, जो पहले कई मामलों में बँटे थे, अब साझा स्वशासन और भूमि अधिकारों की साझा मांग पर साथ खड़े हैं। केंद्र सरकार ने जहाँ कुछ हासिलियाँ गिनाई, वहीं स्थानीय लोगों ने सरकार की कमी गिनवाई और भरोसे के संकट की बात की।
राजनीतिक दलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस घटना के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया और दिल्ली को संवाद और समाधान के लिए कहा। सरकार ने सोनम वांगचुक के NGO का FCRA लाइसेंस भी रद्द कर दिया, जिससे और तनाव बढ़ा।
आगे की संभावनाएं और समाधान
अब सवाल हैं — क्या प्रशासन आंदोलनकारियों की मांगें मानेगा? केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अगली वार्ता 6 अक्टूबर को निर्धारित की है। स्थानीय नेतृत्व का कहना है कि अगर सरकार ने छठी अनुसूची और राज्य के दर्जे की मांग नहीं मानी, तो संघर्ष बढ़ सकता है।
लद्दाख का यह आंदोलन महज़ स्थानीय असंतोष नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र और संघीय ढांचे की परीक्षा भी है — क्या सरकारें सीमांत इलाकों की संवैधानिक अपेक्षाओं को समझ पाएंगी? क्या हिंसा और प्रशासनिक दमन की बजाए, संवाद, सम्मान और स्थानीय आत्मनिर्णय का रास्ता चुना जाएगा?
लद्दाख के नाम यह 'सबसे खूनी दिन' उनकी भावी पहचान की लड़ाई में एक बड़ा मोड़ बन गया — जिसमें राज्य का दर्जा, आदिवासी सुरक्षा और सांस्कृतिक संरक्षण सम्मिलित हैं। केन्द्र सरकार के सामने चुनौती है कि वह पुरानी वादाखिलाफी छोड़ आगे आए और लद्दाख के लोगों की चिंताओं को समाधान दे, ताकि यह सीमांत क्षेत्र राष्ट्रीय एकता का सशक्त उदाहरण बन सके।